डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की जीवनी

 


   राम मनोहर लोहिया 23 मार्च 1910 को UP के जिला फ़ैज़ाबाद में अपने खानदानी गाओं अकबर पुर में पैदा हुए थे। उन के पिता जी हिरा लाल स्कूल के अध्यापक/teacher थे और उन की माँ का नाम चंदा था। राम मनोहर उन के एकलौते बेट थे। वह सिर्फ ढाई [21/2 ] साल के थे के उन की माँ चलबसि, उन की परवरिश उन की दादी ने की मगर ये भी राम मनोहर को 10 साल का छोड़ कर सधार गईं। राम मनोहर के दादा पर दादा पूर्वी UP के वैपरी [तबके] से तालुक रखते थे और क्यू के ये खानदान लोहे का वैपर करता था इस लिए '' लोहिया'' कहा जाने लगा। जब राम मनोहर लोहिया की माँ चलबसी तो उन के पिता जी हिरा लाल ने मुंबई जा कर खुद को पूरी तरहा से कांग्रेस के कामों में लगा देने का फैसला कर लिया और ज़ाहिर है राम मनोहर उन के साथ थे 
   उन्हें मुंबई में मारवाड़ी हाई स्कूल में प्रवेश कर दिया गया और बस इसी स्कूल से इन के सियासी कामों की शुरुआत हुई। 1/अगस्त 1920 को लोकमान्य तिलक की मोत उन के लिए एक ज़रूरी सियासी झटका साबित हुआ। उन्हों ने छात्रों को जमा कर लिया और इन की हड़ताल की राहनुमाई की। इस ज़माने में उन की हड़ताल में दूसरे मुल्कों से मँगाए गए कपड़ों को जलना, खादी का प्रचार और सोल नाफ़रमानी [आज्ञा न मानना] शामिल था । हिरा लाल खुद स्वदेशी चीज़ों के विरोध में लगे हुए थे। 
   एक दिन हिरा लाल अपने 9 उम्र बेटे को गाँधी जी से मिलाने ले गए और बस इन्हे देखते ही ये लड़का उन से इतना प्रभावित हुआ के इस ने झुक कर गाँधी जी के पैर छु लिए। हलाकि ये बात इस की अपनी आदत के खिलाफ थी। इस तरहा 10 साल की उम्र ही में राम मनोहर गाँधी जी की सत्याग्रह के प्रोग्राम में शामिल हो गए। 1921 में लोहिया की मुलाकात पहली बार जवाहरलाल नेहरू से हुई और ये पहली मुलाकात ही ऐसी फूली फली के आपसी मोहब्बत, दोस्ती में बदली और फिर घरेलु तालुकात में। लोहिया बाद में नेहरू की पॉलिसियों पर शायद सबसे सख्त नुक्ता चीनी और मुखालिफत/विरोध भी किया करते थे लेकिन एक इंसान की हैसियत से उन्हें इतना ही पसंद भी करते थे। 
   जिस ज़माने में 
लोहिया 1963 में चीन से जंग के बाद पार्लिमेंट/parliament के मेंबर थे, किसी ने नेहरू पर नुक्ताचीनी की तो लोहिया नेहरू की हिमायत/तरफ़दारी में एक दम खड़े हो गए मगर आप तो लोहिया जी खुद नेहरू पर तनक़ीद/आलोचना करते रहते हैं, इन साहब ने याद दिलाया :''हाँ !मैं कर सकता हूँ। इस लिए के मैं उन से उतनी ही मोहब्बत भी करता हूँ। क्या आप इन से मेरी मोहब्बत के एक ज़रे बराबर भी मोहब्बत करते हैं। आप की क्या मजाल के आप नेहरू के खिलाफ कोई बात करें।'' लोहिया ने पलट कर जवाब दिया था। 1924 में सिर्फ चौदा साल ही की उम्र में लोहिया ने कांग्रेस के वार्षिक समारोह में भाग लिया और फिर 1925 में Metriculation की परीक्षा फर्स्ट डिवीज़न में पास की और अपने स्कूल में पहली पोज़िशन भी हासिल की लोहिया किसी सरकारी विभाग में दाखिला लेना नहीं चाहते थे इस लिए वह अन्टर  -मेडिएंट [HSC /12] करने की गरज़ से बनारस हिन्दू university चले गए और बस वहां के रेहेन सेहेन और ज़िंदगी के वातवरण ने उन की व्यक्तित्व को एक खास रंग में ढ़ाल दिया।
यहीं उन के वोह गुण उभरे और मांझे गाएं जिन्हों ने इन्हें एक प्रसिद्ध लीडर बना दिया। इस ज़माने में ये पतले दुबले खासे सावले और कुछ छोटे कद के मगर बड़े हर-दिल अज़ीज़ नौजवान थे। लोग इन्हें खुश मिज़ाज, नेक और आर्टिस्ट किसम के नौजवानो में गिनते थे। इतिहास उन का पसंदीदा विषय था। इस सिलसिले में इन में इतनी समझ बुझ या ज़हानत और इतनी जुरअत पाई जाती थी के इतिहास में पढाई जाने वाली गलत बातों को चैलेंज/challenge कर सकते थे। इस ज़माने में अन्टर-मेडिएंट जामतों को पढाई जाने वाली इतिहास की एक किताब थी जिसे किसी अंग्रेज़ ने लिखा था। इस में शिवाजी को एक लुटेरा सरदार लिखा गया था।
   लोहिया ने इस बयान को चुनौती दे दी। उन्हों ने लाइब्रेरी/library खंगाल डाली, सही बातों को जमा किया और इन्हें ढंग से पेश किया और आखिर इन की इस जुरअत और मेहनत का ये नतीजा निकला के ये गलत और दिल दुखाने वाले अल्फ़ाज़ किताब से निकाले गए। जब वह कोई 9 साल के थे तो देखा था के एक 18_19 बार्स का लड़का अपने से छोटे एक लड़के की पिटाई कर रहा है। राम मनोहर अपने दुबले पतले जिस्म और कम ताकतवर होने के बा-वजूद अपनी पूरी ताकत के साथ इस बच्चे को बचाने के लिए आगे बढ़हे। 
   इन की गेर मामूली हिम्मत और जुरअत देख कर बड़ा लड़का डर कर भाग खड़ा हुआ। एक बार उन्हों ने एक गरीब और अपाहिज प्यासे  को कुंऐ/well से पानी खिंच कर पिलाया। इस से इन्हें इतनी ख़ुशी और सुकून मेहसूस हुआ था के इन्हो ने ज़िंदगी भर गरीबों और कुचले हुए बेसाहारा लोगों के लिए काम करने को अपना उद्देश्य बना लिया था। इन के किरदार में मरकज़ का फलसफा महात्मा गाँधी का कर्म और गौतम बुध की दर्द मंदी सब एक साथ जमा हो गए थे।
   लोहिया दुन्या के अज़ीम और मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन /Albert Einstein से 23 जुलाई 1951 को अमरीका में मिले। आइंस्टीन ने इन के खुले हुए ज़ेहन की तारीफ की थी। क्यू के इन का जनम स्थान फ़ैज़ाबाद था इस लिए वह खुद को सरयू नदी का बेटा और अयोध्या का बेटा कहा करते थे। इन्हों ने हिंदुस्तानी संस्कृति से मोहब्बत के असर से रामायण मेले भी शुरू किए।
डॉक्टर लोहिया ने शादी की ना ही इन का अपना कोई घर था। उन्हों ने पूरी ज़िंदगी भागते दौड़ते खानाबदोश की तरहा गुज़री। इन की आम्दानी का खास ज़रया सिर्फ इन की किताबें या मज़मून ही थे जो इन्हों ने बोहत बड़ी तादाद में लिखे थे। इन के दोस्त भी बोहत थे। मर्द औरतें दोनों, जिन के साथ वह अक्सर रहते भी थे। फिर जब वह पार्लिमेंट/parliament के मेंबर हो गए तो इन की एक बाकायदा/conform आम्दानी का सिलसिला भी हो गया।  इन का एक नौकर था जो इन का खाना पकता था और इन की देख भाल भी करता था। वह भी नौकर से ज़यादा उन का दोस्त और साथी था। 
    इन का अपना सामान बहोत ही कम था। जितने आरसे वह दिल्ली में रहते उन की शामे कनॉट प्लेस / connaught place के कॉफी हाउस/coffee house में गुज़रतीं। वह घंटों नौजवानो में घिरे बैठे रहते और सयासत ही पर नहीं, सिनीमा, आर्ट और अदब हर चीज़ पर बात चित करते। इन के चाहने वालों की गिन्ती हज़ारों में थी। 30 सितम्बर 1967 को नई दिल्ली में इन का ऑपरेशन/operation हुआ। वैसे तो ये सिदा सदा ऑपरेशन था लेकिन बाद में इस में उलझन/complication पैदा हो गई और बोहत से लोगों की इस महबूब शख्सियत ने 12 अक्टूबर 1967 को 1:05 पर आखरी साँस ली। ना उन्हों ने अपनी कोई मिलकियत छोड़ी ना बैंक में कुछ रुपए। जो कुछ छोड़ा वो इन के ख़यालात थे और कुछ वह लोग जो इन्हें पसंद करते थे। 
डॉक्टर लोहिया में वो क्या खास बात थी जिस की वजह से वह एक अज़ीम और अनोखे किरदार के मालिक माने जाते हैं। सच बात ये है के वह इस दौर की बग्याना लेकिन उसूलों और कायदों की पाबंद सयासत में के हमेशा याद की जाने वाली दास्ताँ की तरहा रहेंगे। उन्हों ने जमहूरियत (डेमोक्रेसी) और सोशलिसम/socialism को भटकने से बचाने के लिए अपने जिमे गोया चौकीदारी का काम ले लिया था। वह हर किसिम की न-बराबरी के भी दुश्मन थे। अक्सर वह अपनी आवाज़ की आखरी हद पर चिँख पड़ते और कहते :'' इंसानो को गन्दगी और इस पर बैठी मखियाँ मत समझो। '' 
   राम मनोहर लोहिया ने अपराधियों के फांसी पर लटकाए जाने की सजा को कभी पसंद नहीं किया। वह इसे दरिंदगी मानते थे। 
   डॉक्टर लोहिया को बे-बाक और निडर लोहिया भी कहा जाता था। एक अकेली ज़ात जो अपने अटल इरादे और बे-रोक टोक जुरअत से सल्तनतों को उखड फ़ेंक सकती थी। इस लिए कहा जाता है के इस मुल्क में लीडर तो बोहत हुए हैं मगर लोहिया एक ही हुआ है। 





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