Rabindranath tagore
रबीन्द्रनाथ टैगोर 7 मई 1861 को कलकत्ता में पैदा हुए। आप के पिताजी का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था। आप देवेन्द्रनाथ टैगोर के 14 /चौदहवे बेटे और सब से छोटे बेटे थे। घर वाले प्यार उन्हें ''रोबी'' कहते थे।
देवेन्द्रनाथ टैगोर एक महर्षि हिन्दु दार्शनिक थे। उन की सारी ज़िंदगी ईश्वर भगति और गरीबों की मदद करने में गुज़र गई। अपने ज़माने के मशहूर ज्ञानी, विद्वान् थे। बंगाली, संस्कृत, और हिंदी के साथ साथ उर्दू और फ़ारसी भी अच्छी खासी जानते थे। सच्चे देश भगत थे और हर वक़्त देश की प्रगति की फ़िक्र में लगे रहते थे।
टैगोर के खान्दान में बच्चों की शिक्षा ऐसे खास ढंग से दी जाती थी जिस पर सदयों हिंदुस्तान को फक्र रहा है। सुबह सवेरे उठना, मूं हाँथ दो कर दर्शन के लिए अखाड़े पर पौहच जाना, अखाड़े से निकलते ही स्कूल जाना। तमाम दिन स्कूल में गुज़र कर दोपहर को जब ये बच्चे वापस घर आते तो पढ़हाने वालों का सिलसिला शुरू हो जाता और रात 9 बजे उन्हें कैदियों की तरहा सोने पर मजबूर कर दिया जाता।
रबीन्द्रनाथ टैगोर बंगाल के काफी मशहूर और आमिर खान्दान से ताल्लुक रखते थे।मगर इस खान्दान में अपने बच्चों की परवरिश का ढंग भी बस नमूने का था। बच्चों के लिए न कोई कीमती कपडे, ना अच्छे अच्छे खानों का, ना ऐश-व-आराम का कोई भी सामान उन्हें नहीं दिया गया और यही सब आराम ने आज की नस्लों को बर्बाद कर दिया है। खुद टैगोर मामूली कमीज और पजामा पहनते थे। आम तोर पर स्लीपरों /चप्पलों का एक जोड़ा मिला करता था। घर पर ज़यादा तर नंगे पैर रहते थे
अभी टैगोर आठ /8 साल के ही थे के उन के बड़े भाई ''ज्योति नाथ '' ने उन से कहा ''रोबी तुम शेर क्यू नहीं कहते ?''
टैगोर ने पहली नज़म/POEM ''कनोल'' पर लिखी। नज़म/POEM कैसी थी कुछ पता नहीं लेकिन ऐसा ज़रूर था के इसे देख कर ज्योति नाथ की आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए। उन्हों ने अपने छोटे भाई की हिम्मत बढ़ाई।
रबीन्द्रनाथ टैगोर की शायरी की यह शुरुआत थी। इस के बाद जब नार्मल स्कूल पोंचे तो सुर्ख /लाल रंग के कागज़ पर लिखने लगे। अक्सर फुर्सत के वक़्त ये अपने शेर ज्योति बाबू को सुनाया करते थे। ज्योति नाथ, जब भी उन्हें अपने दोस्तों से मिलाते तो हमेशा शायर की हैसियत से परिचय कराते। इस अहेमियत अफ़ज़ाई का ये नतीजा निकला के यह जल्द शायर की हैसियत से मशहूर हो गए।
बात कुछ और आगे बढ़ी। टैगोर की प्रसिद्धि स्कूल के सूपरन्टेन्डन्ट /superintendent तक पोहंची। उन्हों ने रबीन्द्रनाथ टैगोर के शेर सुन कर उन्हें अपने खास विध्यार्तीयों में शामिल कर लिया।
टैगोर की ज़िन्दगी जिस अधूरी शिक्षा के दौर से गुज़र रही थी। वह देख कर टैगोर का परिवार भोत परेशान था। अपने बड़े भाई ज्योति नाथ के साथ इन्हें इंगलिस्तान तालीम/शिक्षा हासिल करने के लिए भेज दिया गया। ये 1877 की बात है। टैगोर को पहले तो ईटन कोलेज फिर यूनिवर्सिटी/university कोलेज ऑफ़ लंदन में दाखिला करा दिया गया। जहाँ वह कई महीनो तक पढ़ते रहे लेकिन जल्द ही उन का दिल उचाड़ हो गया। कारण, काले गोरे का फर्क, गुलाम और आका का भेद, उन सब बातों को उन का दिल बर्दाश्त ना कर पाया और एक बार फिर उन्हों ने अपना सारा धयान शेर-व-शायरी की तरफ लगा दिया। इस ज़माने में उन्हों ने नज़म/poems से ज़यादा नसर लिखने की कोशिश की।
इंगलिस्तान में कुछ दिन ठर्ने के बाद जैसे गए थे वैसे वापस आए। कोई डिग्री साथ ना लाए। खानदान के लोग नाराज़ थे। इस लिए, उन को हुकुम मिला के शिलदान पोहंच कर जागीर का इंतेज़ाम करें।
यहाँ उन्हें पहली बार इस हिंदुस्तान की गरीबी और अफ़लासी गाओं वालो की इंसानियत और शराफत को गेहरी नज़र से देखने का मौका मिला। यहाँ उन्हों ने गरीब किसानों की ज़िन्दगियों को देखा। यहाँ वह गरीबों और मज़दूरों के दुख दर्द में उन के साथ रहे और जागीर का इंतेज़ाम इतने अच्छे से किया के सभी कुश हो गए। यहाँ उन की शायरी को नई ज़िन्दगी मिली। उन के बोहत से ड्रामे और गीतों के मजमुए इसी शिलदान की पैदावार है।
टैगोर को मौसिकी से भी कुदरती लगाओ था। आप ने बच्पन से मौसिकी की बाकायदा शिक्षा हासिल की। उन्हों ने ना सिर्फ गीत लिखे बल्के उन्हें दिलकश धुनों पर गा कर सुनाया। उन्हों ने अपने गीतों की धुनें खुद बनाइ। उन की बनाई हुई धुनें धीरे धीरे बंगाल की सब से ज़यादा प्रसिद्ध संगीत बन गई। उन धुनों को ''रबिन्द्र संगीत'' का नाम दिया गया। बंगाल की मौसिकी में रबिन्द्र संगीत को एक एहम मक़ाम हासिल है।
टैगोर की एक और बात सुन कर आप को बड़ा अचम्बा होगा। उन्हों ने साठ/60 साल से ज़यादा उम्र में मसूरी सीखी। भला इतनी उम्र को पोहंच कर इंसान किसी नई कला को तो क्या सीखता अपनी उस कला से भी उकता जाता है जिस का वह माहिर होता है लेकिन रबीन्द्रनाथ टैगोर ने उम्र के इसी हिसे में एक नई कला को सीखा। पुरे धयान और मेहनत से सीखा और अभी इसे सीखे दस बारह साल भी ना हुए थे के मसूरी के माहिरों/professionals ने इन्हें मसूरी के पैगम्बर का दर्जा/औहदा दिया। टैगोर की तस्वीरें ज़यादा तर कुदरती मनाज़िर पर हैं,जंगल/वन के जानवरों पर है और परिंदों /birds पर हैं। इन तस्वीरों की तादाद/मात्रा लग भाग तीन हज़ार/3000 है।
टैगोर हिंदुस्तान के नहीं, दुन्या के बोहत बड़े शायर थे। बोहत बड़े संगीत कार। बोहत बड़े मसुर थे। सब बातों के साथ साथ इंसान भी भोत बड़े थे। जिस से मिलते बराबरी और और एखलाक/सुशीलता से मिलते। जिस किसी मिलते उस की हैसियत के मुताबिक बातें करते।
उन्हों ने एक जमींदार/जागीरदार के घर में आंखें खोली थी। लेकिन इन की सादगी /simplicity काबिले तारीफ थी। सादे कपड़े पेहेनते थे। खाने में किसी किस्म का तकल्लुफ़/शिष्टाचार, बनावट, औपचारिकता नहीं। हमेशा सादा खाना खाते थे। अपने छात्रों को भी यही राय देते थे। ''सादा और कुदरती/natural उसूलों पर ज़िंदगी बसर करो। ''
रबीन्द्रनाथ टैगोर को उस्ताद/अध्यापक की हैसियत से बोहत ऊंचा मक़ाम हासिल है। हिंदुस्तान के पुराने ऋषियों की तरहा उन्हों ने हमारे लिए एक लाज़वाल तरका छोड़ा है और वोह है science technique/सइंसी तकनीकें। उन्हों ने कलकत्ता से नबे/90 मील दूर एक छोटे स्कूल की The foundation/बुनियाद डाली। यहाँ बच्चों को मुफ्त/free शिक्षा दी जाती थी। इस स्कूल को चलाने उन्हें पैसों/rupees की काफी तकलीफ हुई पोरी का घर बेचा, बीवी के गेहने/jewelry बेचे और थोड़ी बोहत मदद बाहर हासिल की। इतनी मेहनत करके इसे विश्व भारती की शकल दी और अब उस छोटे स्कूल को एक शानदार यूनिवर्सिटी/university का दर्जा हासिल है।
लाफ़ानी[यानि कभी ख़तम होने वाली] गीतांजलि का जनम दाता और राष्ट्र संगीत का जनम दाता 1941 को इस दुन्या से चला गया। अर्थी के साथ कई मील लम्बा जुलुस था। इस जुलुस में हिन्दू भी थे, मुस्लमान भी थे, ईसाई भी थे और दूसरे मुल्कों के वह लोग भी थे जो कलकत्ता में रहते थे और यह सब शायरे अज़ीम के आखरी दर्शन के लिए बेताब थे, बे-करार थे।
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