CHACHA NEHRU


     पंडित जवाहर लाल नेहरू या चाचा नेहरू को कौन नहीं जानता ? वह बड़ी खूबसूरत शख्सियत के मालिक थे। इन को अपने लीडर या प्रधान मंत्री होने का ज़रा भी गुरुर/घमंड नहीं था। यही वजह है के वह हमेशा जवाहर लाल ही रहे। वतन के जवान और बुढ्हे सब ही इन से मोहब्बत करते थे और पंडित नेहरू भी इन सब के साथ प्यार से और अच्छे से पेश आते थे। इन्हें झूट, सुस्ती और लापरवाही से नफरत थी। रोज़ वह सैकड़ों आदमियों से मिलते थे और इन में से हर एक पंडित नेहरू की किसी ना किसी चीज़ का एहसान-मंद हो कर जाता। वह बड़ी और भुड़हि औरतों को सहारा देते। बच्चों के साथ हस्ते खेलते, किसानों से इन के काम के बारे में मालूमात करते। 
    वह रुपए पैसे से भी चुप-चाप मोहताजों और गरीबों की मदद किया करते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू सुबह सवेरे जाग जाते थे और दिन भर के काम की तैयारी के लिए कुछ देर व्यायाम कर लेते थे। नाश्ता इन का पसंद-दीदा खाना था और इस में अक्सर वह ''दल्या'' खाना पसंद करते थे। नाश्ता करते वक़्त वह बड़ी मज़ेदार कहानियाँ सुनते जाते थे। सुबह के नाश्ते के बाद वह फिर इन लोगों से मिलते जो बड़ी तादाद में रोज़-आना इन से मिलने आते थे। फिर वह अपने पालतू जानवर को देखने जाते। वह वक़्त के बड़े पाबंद थे। ठीक वक़्त पर कार्यालय पोहंचते और सारा दिन काम में लगे रहते। जवाहर लाल नेहरू एक अच्छे मेज़बान थे। अक्सर खाने पर इन के यहाँ मेहमान हुआ करते थे। 
    जवाहर लाल नेहरू इरादे के पके और बात के धनि थे। वह जिस काम को करना तए करते थे उसे ज़रूर पूरा करते थे। किसी काम के बिगड़ने पर अगर वह नाराज़ होते तो थोड़ी देर बाद ही शांत हो जाते और माफ़ कर देते। 
वह वक़्त के बड़े पाबंद थे वह हमेशा वक़्त पर खतों/letter का जवाब दिया करते थे। बच्चों से उन्हें बोहत प्यार था। इन के साथ खेलने में उन्हें बोहत मज़ा आता था। इसी वजह से बच्चे इन्हें प्यार से चाचा नेहरू कहते थे। 14 नवंबर को अपना जनम दिन बच्चों के साथ मानाया करते थे। 
    वह हिंदुस्तान और हिंदुस्तान के अवाम की खिदमत करना चाहते थे। नतीजे की परवाह किए बगैर अपने काम में लगे रहते। एक बार उन्हों ने कहा था ''बस मेरे दिल में एक ही तमना है के मेरी ज़िन्दगी के जो बाकि बचे हुए साल हैं इन में अपनी जिस्मानी और दिमागी ताकत हिंदुस्तान की भलाई और इस की तामीर/development में लगा दूँ, मैं बे-हद मेहनत से काम करता रहूं, यहाँ तक के मेरे अंदर कुछ बाकि ना रहे और ये नाकारा बदन खाक और कूड़े में फ़ेंक दिया जाए, मुझे इस से ज़रा भी दिलचस्पी नहीं के मेरे मरने के बाद आप या कोई दूसरा आदमी मेरे बारे में क्या कहे गा। मेरे लिए तो सिर्फ यही काफी है के अपनी पूरी ताकत हिंदुस्तान की तरकी और भलाई के लिए सर्फ़ कर दूँ।'' 
जनवरी 1963 इन पर पहली बार लकवा (Paralysis) का हमला हुआ और जिस्म के बाईं तरफ/left side का हिस्सा एक तरह से फ्रीज हो गया। लेकिन फिर भी वह बराबर काम करते रहे। इन्हें आराम की ज़रूरत थी लेकिन जब काम इन के सामने आता तो काम में लग जाते और आराम ना करते थे। मई 1964 में वह कुछ आराम के लिए छूटी पर देहरादून गए लेकिन वहां पर भी वह फाइलें देखते रहे और इन पर नोट/note लिखते रहे छुटियाँ ख़तम कर के वह 26 मई को दिल्ली वापस आए। आधी रात तक काम करते रहे। सुबह उठे तो इन्हें बेचैनी महसूस हुई वह लेट गए और फिर उठ ना सके। डॉक्टरों ने दौपहर तक कोशिश की पर वह सभी नाकाम रहे और 27 मई1964 को पंडित जवाहर लाल नेहरू इस दुन्या से चले गए। 
    उन्हों ने वसीयत की थी। ''मेरी ख्वाहिश है के मेरी रख को हवाई जहाज़ से बोहत ऊंचाई पर ले जाकर खेतों में बिखेर दिया जाए ता के वह खाक भी हिंदुस्तान का एक ऐसा हिस्सा बन जाए जिस को कोई अलग ना कर सके।''




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